अक्सर नीतियाँ काग़ज़ पर तो अच्छी होती हैं, लेकिन लागू कैसे और कब होती है ये सबसे बड़ा चैलेंज है। नयी शिक्षा नीति में प्राइमरी और प्री प्राइमरी को काफी अहमियत दी गयी है, साथ ही मातृभाषा में पढ़ना भी छोटे बच्चों के लिए लाभदायक होगा। जानिये अधिक इस लेख में।
पाँचवीं का बच्चा तीसरी की किताब नहीं पढ़ सकता, चौथी के बच्चे को जोड़ना और घटाना नहीं आता, अक्सर प्रथम की ओर से तैयार की गई ‘असर’ की रिपोर्ट में भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए ऐसी रिपोर्ट्स आती थी. लेकिन क्या नई शिक्षा नीति के लागू होने के बाद ये रिपोर्ट बदल जाएगी?
बीबीसी ने बात की ‘प्रथम’ एनजीओ फ़ाउंडेशन की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी से.
उनके मुताबिक़ अक्सर नीतियाँ काग़ज़ पर तो अच्छी हैं, लेकिन लागू कैसे और कब होती है ये सबसे बड़ा चैलेंज होगा. उन्होंने बताया कि प्राथमिक शिक्षा को इस नई पॉलिसी में काफ़ी अहमियत दी गई है.
ये अच्छी बात है. क्योंकि पहली में बच्चा सीधे स्कूल में आता था, तो उस वक़्त वो दिमाग़ी तौर पर पढ़ने के लिए तैयार नहीं आता था. तीन साल के प्री-स्कूल के बाद अगर अब वो पहली में आएगा, तो मानसिक तौर पर सीखने के लिहाज से पहले के मुक़ाबले ज़्यादा तैयार होगा.
पंजाब, हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाक़ों में स्कूलों में प्री-प्राइमरी में इस 5+3+3+4 पर काम भी चल रहा है और नतीज़े भी अच्छे सामने आए हैं.
मातृ भाषा में पढ़ाने को भी रूक्मणि एक अच्छा क़दम मानती है. छोटा बच्चा दुनिया घूमा नहीं होता, ज़्यादा ज़बान नहीं समझता, तो घर की भाषा को स्कूल की भाषा बनाना बहुत लाभदायक होगा.
लेकिन रुक्मिणी को लगता है कि इसके लिए आंगनबाड़ियों को तैयार करना होगा. हमारे देश में आंगनबाड़ी सिस्टम बहुत अच्छा माना जाता है. फ़िलहाल उनको हेल्थ और न्यूट्रिशन के लिए ट्रेन किया गया है. उनको अब बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने की ट्रेंनिग देना पड़ेगा.
महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय और शिक्षा को इसके लिए एक साथ आकर काम करने की ज़रूरत होगी.
नई चुनौतियों की बात पर वो कहतीं है, “हम भारत के लोग कुंभ मेला तो बहुत अच्छा आयोजित कर पाते हैं, लेकिन इलाहाबाद शहर को जब चलाने की बात आती है, तो दिक़्क़त आती है. 100 चीज़ें एक साथ नहीं हो सकती, इसके लिए एक सीढ़ीनुमा रोड मैप भी होना चाहिए. वो इसे नई नीति को साँप-सीढ़ी का खेल कहती हैं. खेलने वालों को साँप का भी अंदाज़ा होना चाहिए और सीढ़ियों का भी. इस नई नीति में ऊपर जाने के भी रास्ते हैं और लुढ़क कर नीचे आने के रास्ते भी. संभल कर नहीं खेलने के हारने का ख़तरा भी होगा. इसके लिए सहारा चाहिए होगा, जैसे साँप-सीढ़ी खेलने के लिए गोटियाँ चाहिए होती है और प्लेयर चाहिए होते हैं. स्कूलों को भी वैसे ही सहारे की ज़रूरत होगी."
रुक्मिणी मानती हैं कि अगर ये नई शिक्षा नीति सही लागू हो जाती है, तो पाँच साल बाद असर की रिपोर्ट में वो बातें नहीं होंगी जो आज तक हम सुनते आए हैं.